सोमवार, 22 दिसंबर 2014

श्रीरामरक्षास्तोत्रम्‌

॥ श्रीरामरक्षास्तोत्रम्‌ ॥
श्रीगणेशायनम: ।
अस्य श्रीरामरक्षास्तोत्रमन्त्रस्य ।बुधकौशिक ऋषि: ।श्रीसीतारामचंद्रोदेवता ।अनुष्टुप्‌ छन्द: । सीता शक्ति: ।श्रीमद्‌हनुमान्‌ कीलकम्‌ ।श्रीसीतारामचंद्रप्रीत्यर्थे जपे विनियोग: ॥
अर्थ: — इस राम रक्षा स्तोत्र मंत्र के रचयिता बुध कौशिक ऋषि हैं, सीता और रामचंद्र देवता हैं, अनुष्टुप छंद हैं, सीता शक्ति हैं, हनुमान जी कीलक है तथा श्री रामचंद्र जी की प्रसन्नता के लिए राम रक्षा स्तोत्र के जप में विनियोग किया जाता हैं
| ॥ अथ ध्यानम्‌ ॥
ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्दद्पद्‌मासनस्थं ।
पीतं वासोवसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम्‌॥
वामाङ्‌कारूढसीता मुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभं।
नानालङ्‌कारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डनं रामचंद्रम्‌ ॥
ध्यान धरिए — जो धनुष-बाण धारण किए हुए हैं,बद्द पद्मासन की मुद्रा में विराजमान हैं और पीतांबर पहने हुए हैं, जिनके आलोकित नेत्र नए कमल दल के समान स्पर्धा करते हैं, जो बाएँ ओर स्थित सीताजी के मुख कमल से मिले हुए हैं- उन आजानु बाहु, मेघश्याम,विभिन्न अलंकारों से विभूषित तथा जटाधारी श्रीराम का ध्यान करें |॥ इति ध्यानम्‌ ॥ 
चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम्‌ ।एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम्‌ ॥१॥ 
श्री रघुनाथजी का चरित्र सौ करोड़ विस्तार वाला हैं | उसका एक-एक अक्षर महापातकों को नष्ट करने वाला है |
ध्यात्वा नीलोत्पलश्यामं रामं राजीवलोचनम्‌ ।जानकीलक्ष्मणॊपेतं जटामुकुटमण्डितम्‌ ॥२॥
 नीले कमल के श्याम वर्ण वाले, कमलनेत्र वाले , जटाओं के मुकुट से सुशोभित, जानकी तथा लक्ष्मण सहित ऐसे भगवान् श्री राम का स्मरण करके,
सासितूणधनुर्बाणपाणिं नक्तं चरान्तकम्‌ ।स्वलीलया जगत्त्रातुमाविर्भूतमजं विभुम्‌ ॥३॥
जो अजन्मा एवं सर्वव्यापक, हाथों में खड्ग, तुणीर, धनुष-बाण धारण किए राक्षसों के संहार तथा अपनी लीलाओं से जगत रक्षा हेतु अवतीर्ण श्रीराम का स्मरण करके,
रामरक्षां पठॆत्प्राज्ञ: पापघ्नीं सर्वकामदाम्‌ ।शिरो मे राघव: पातु भालं दशरथात्मज: ॥४॥
मैं सर्वकामप्रद और पापों को नष्ट करने वाले राम रक्षा स्तोत्र का पाठ करता हूँ | राघव मेरे सिर की और दशरथ के पुत्र मेरे ललाट की रक्षा करें |
कौसल्येयो दृशौ पातु विश्वामित्रप्रिय: श्रुती ।घ्राणं पातु मखत्राता मुखं सौमित्रिवत्सल: ॥५॥
कौशल्या नंदन मेरे नेत्रों की, विश्वामित्र के प्रिय मेरे कानों की, यज्ञरक्षक मेरे घ्राण की और सुमित्रा के वत्सल मेरे मुख की रक्षा करें |
जिव्हां विद्दानिधि: पातु कण्ठं भरतवंदित: ।स्कन्धौ दिव्यायुध: पातु भुजौ भग्नेशकार्मुक: ॥६॥
मेरी जिह्वा की विधानिधि रक्षा करें, कंठ की भरत-वंदित, कंधों की दिव्यायुध और भुजाओं की महादेवजी का धनुष तोड़ने वाले भगवान् श्रीराम रक्षा करें |
करौ सीतपति: पातु हृदयं जामदग्न्यजित्‌ ।मध्यं पातु खरध्वंसी नाभिं जाम्बवदाश्रय: ॥७॥
मेरे हाथों की सीता पति श्रीराम रक्षा करें, हृदय की जमदग्नि ऋषि के पुत्र (परशुराम) को जीतने वाले, मध्य भाग की खर (नाम के राक्षस) के वधकर्ता और नाभि की जांबवान के आश्रयदाता रक्षा करें |
सुग्रीवेश: कटी पातु सक्थिनी हनुमत्प्रभु: ।ऊरू रघुत्तम: पातु रक्ष:कुलविनाशकृत्‌ ॥८॥
मेरे कमर की सुग्रीव के स्वामी, हडियों की हनुमान के प्रभु और रानों की राक्षस कुल का विनाश करने वाले रघुश्रेष्ठ रक्षा करें |
जानुनी सेतुकृत्पातु जङ्‌घे दशमुखान्तक: ।पादौ बिभीषणश्रीद: पातु रामोSखिलं वपु: ॥९॥
मेरे जानुओं की सेतुकृत, जंघाओं की दशानन वधकर्ता, चरणों की विभीषण को ऐश्वर्य प्रदान करने वाले और सम्पूर्ण शरीर की श्रीराम रक्षा करें |
एतां रामबलोपेतां रक्षां य: सुकृती पठॆत्‌ ।स चिरायु: सुखी पुत्री विजयी विनयी भवेत्‌ ॥१०॥
शुभ कार्य करने वाला जो भक्त भक्ति एवं श्रद्धा के साथ रामबल से संयुक्त होकर इस स्तोत्र का पाठ करता हैं, वह दीर्घायु, सुखी, पुत्रवान, विजयी और विनयशील हो जाता हैं |
पातालभूतलव्योम चारिणश्छद्‌मचारिण: ।न द्र्ष्टुमपि शक्तास्ते रक्षितं रामनामभि: ॥११॥
जो जीव पाताल, पृथ्वी और आकाश में विचरते रहते हैं अथवा छद्दम वेश में घूमते रहते हैं , वे राम नामों से सुरक्षित मनुष्य को देख भी नहीं पाते |
रामेति रामभद्रेति रामचंद्रेति वा स्मरन्‌ ।नरो न लिप्यते पापै भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ॥१२॥
राम, रामभद्र तथा रामचंद्र आदि नामों का स्मरण करने वाला रामभक्त पापों से लिप्त नहीं होता. इतना ही नहीं, वह अवश्य ही भोग और मोक्ष दोनों को प्राप्त करता है |
जगज्जेत्रैकमन्त्रेण रामनाम्नाभिरक्षितम्‌ ।य: कण्ठे धारयेत्तस्य करस्था: सर्वसिद्द्दय: ॥१३॥
जो संसार पर विजय करने वाले मंत्र राम-नाम से सुरक्षित इस स्तोत्र को कंठस्थ कर लेता हैं, उसे सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं |
वज्रपंजरनामेदं यो रामकवचं स्मरेत्‌ ।अव्याहताज्ञ: सर्वत्र लभते जयमंगलम्‌ ॥१४॥
जो मनुष्य वज्रपंजर नामक इस राम कवच का स्मरण करता हैं, उसकी आज्ञा का कहीं भी उल्लंघन नहीं होता तथा उसे सदैव विजय और मंगल की ही प्राप्ति होती हैं |
आदिष्टवान्यथा स्वप्ने रामरक्षामिमां हर: ।तथा लिखितवान्‌ प्रात: प्रबुद्धो बुधकौशिक: ॥१५॥
भगवान् शंकर ने स्वप्न में इस रामरक्षा स्तोत्र का आदेश बुध कौशिक ऋषि को दिया था, उन्होंने प्रातः काल जागने पर उसे वैसा ही लिख दिया |
आराम: कल्पवृक्षाणां विराम: सकलापदाम्‌ ।अभिरामस्त्रिलोकानां राम: श्रीमान्‌ स न: प्रभु: ॥१६॥
जो कल्प वृक्षों के बगीचे के समान विश्राम देने वाले हैं, जो समस्त विपत्तियों को दूर करने वाले हैं (विराम माने थमा देना, किसको थमा देना/दूर कर देना ? सकलापदाम = सकल आपदा = सारी विपत्तियों को)  और जो तीनो लोकों में सुंदर (अभिराम + स्+ त्रिलोकानाम) हैं, वही श्रीमान राम हमारे प्रभु हैं
|तरुणौ रूपसंपन्नौ सुकुमारौ महाबलौ ।पुण्डरीकविशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ ॥१७॥
जो युवा,सुन्दर, सुकुमार,महाबली और कमल (पुण्डरीक) के समान विशाल नेत्रों वाले हैं, मुनियों की तरह वस्त्र एवं काले मृग का चर्म धारण करते हैं |
फलमूलशिनौ दान्तौ तापसौ ब्रह्मचारिणौ ।पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥१८॥

जो फल और कंद का आहार ग्रहण करते हैं, जो संयमी , तपस्वी एवं ब्रह्रमचारी हैं , वे दशरथ के पुत्र राम और लक्ष्मण दोनों भाई हमारी रक्षा करें |
शरण्यौ सर्वसत्वानां श्रेष्ठौ सर्वधनुष्मताम्‌ ।रक्ष:कुलनिहन्तारौ त्रायेतां नो रघुत्तमौ ॥१९॥
ऐसे महाबली – रघुश्रेष्ठ मर्यादा पुरूषोतम समस्त प्राणियों के शरणदाता, सभी धनुर्धारियों में श्रेष्ठ और राक्षसों के कुलों का समूल नाश करने में समर्थ हमारा त्राण करें |

आत्तसज्जधनुषा विषुस्पृशा वक्षया शुगनिषङ्‌ग सङि‌गनौ ।रक्षणाय मम रामलक्ष्मणा वग्रत: पथि सदैव गच्छताम्‌ ॥२०॥
संघान किए धनुष धारण किए, बाण का स्पर्श कर रहे, अक्षय बाणों से युक्त तुणीर लिए हुए राम और लक्ष्मण मेरी रक्षा करने के लिए मेरे आगे चलें |
संनद्ध: कवची खड्‌गी चापबाणधरो युवा ।गच्छन्‌मनोरथोSस्माकं राम: पातु सलक्ष्मण: ॥२१॥
हमेशा तत्पर, कवचधारी, हाथ में खडग, धनुष-बाण तथा युवावस्था वाले भगवान् राम लक्ष्मण सहित आगे-आगे चलकर हमारी रक्षा करें |

रामो दाशरथि: शूरो लक्ष्मणानुचरो बली ।काकुत्स्थ: पुरुष: पूर्ण: कौसल्येयो रघुत्तम: ॥२२॥

भगवान् का कथन है की श्रीराम, दाशरथी, शूर, लक्ष्मनाचुर, बली, काकुत्स्थ , पुरुष, पूर्ण, कौसल्येय, रघुतम,  
वेदान्तवेद्यो यज्ञेश: पुराणपुरुषोत्तम: ।जानकीवल्लभ: श्रीमानप्रमेय पराक्रम: ॥२३॥
वेदान्त्वेघ, यज्ञेश,पुराण पुरूषोतम , जानकी वल्लभ, श्रीमान और अप्रमेय पराक्रम आदि नामों का
इत्येतानि जपेन्नित्यं मद्‌भक्त: श्रद्धयान्वित: ।अश्वमेधाधिकं पुण्यं संप्राप्नोति न संशय: ॥२४॥
नित्यप्रति श्रद्धापूर्वक जप करने वाले को निश्चित रूप से अश्वमेध यज्ञ से भी अधिक फल प्राप्त होता हैं |
रामं दूर्वादलश्यामं पद्‌माक्षं पीतवाससम्‌ ।स्तुवन्ति नामभिर्दिव्यैर्न ते संसारिणो नर: ॥२५॥
दूर्वादल के समान श्याम वर्ण, कमल-नयन एवं पीतांबरधारी श्रीराम की उपरोक्त दिव्य नामों से स्तुति करने वाला संसारचक्र में नहीं पड़ता |
रामं लक्शमण पूर्वजं रघुवरं सीतापतिं सुंदरम्‌ ।काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम्‌ राजेन्द्रं सत्यसंधं दशरथनयं श्यामलं शान्तमूर्तिम्‌ ।वन्दे लोकभिरामं रघुकुलतिलकं राघवं रावणारिम्‌ ॥२६॥
लक्ष्मण जी के पूर्वज , सीताजी के पति, काकुत्स्थ, कुल-नंदन, करुणा के सागर , गुण-निधान , विप्र भक्त, परम धार्मिक , राजराजेश्वर, सत्यनिष्ठ, दशरथ के पुत्र, श्याम और शांत मूर्ति, सम्पूर्ण लोकों में सुन्दर, रघुकुल तिलक , राघव एवं रावण के शत्रु भगवान् राम की मैं वंदना करता हूँ |
रामाय रामभद्राय रामचंद्राय वेधसे ।रघुनाथाय नाथाय सीताया: पतये नम: ॥२७॥
 राम, रामभद्र, रामचंद्र, विधात स्वरूप , रघुनाथ, प्रभु एवं सीताजी के स्वामी की मैं वंदना करता हूँ |
श्रीराम राम रघुनन्दन राम राम ।श्रीराम राम भरताग्रज राम राम ।
श्रीराम राम रणकर्कश राम राम ।श्रीराम राम शरणं भव राम राम ॥२८॥
हे रघुनन्दन श्रीराम ! हे भरत के अग्रज भगवान् राम! हे रणधीर, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ! आप मुझे शरण दीजिए |
श्रीरामचन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि ।श्रीरामचन्द्रचरणौ वचसा गृणामि ।श्रीरामचन्द्रचरणौ शिरसा नमामि ।श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ॥२९॥
मैं एकाग्र मन से श्रीरामचंद्रजी के चरणों का स्मरण और वाणी से गुणगान करता हूँ, वाणी द्धारा और पूरी श्रद्धा के साथ भगवान् रामचन्द्र के चरणों को प्रणाम करता हुआ मैं उनके चरणों की शरण लेता हूँ |
माता रामो मत्पिता रामचंन्द्र: ।स्वामी रामो मत्सखा रामचंद्र: ।सर्वस्वं मे रामचन्द्रो दयालु ।नान्यं जाने नैव जाने न जाने ॥३०॥
श्रीराम मेरे माता, मेरे पिता , मेरे स्वामी और मेरे सखा हैं | इस प्रकार दयालु श्रीराम मेरे सर्वस्व हैं. उनके सिवा में किसी दुसरे को नहीं जानता |
दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे तु जनकात्मजा ।पुरतो मारुतिर्यस्य तं वन्दे रघुनंदनम्‌ ॥३१॥
जिनके दाईं और लक्ष्मण जी, बाईं और जानकी जी और सामने हनुमान ही विराजमान हैं, मैं उन्ही रघुनाथ जी की वंदना करता हूँ |
लोकाभिरामं रनरङ्‌गधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्‌ ।कारुण्यरूपं करुणाकरंतं श्रीरामचंद्रं शरणं प्रपद्ये ॥३२॥
मैं सम्पूर्ण लोकों में सुन्दर तथा रणक्रीड़ा में धीर, कमलनेत्र, रघुवंश नायक, करुणा की मूर्ति और करुणा के भण्डार की श्रीराम की शरण में हूँ |
मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्‌ ।वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ॥३३॥
जिनकी गति मन के समान और वेग वायु के समान (अत्यंत तेज) है, जो परम जितेन्द्रिय एवं बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं, मैं उन पवन-नंदन वानारग्रगण्य श्रीराम दूत की शरण लेता हूँ |
कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम्‌ ।आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम्‌ ॥३४॥
मैं कवितामयी डाली पर बैठकर, मधुर अक्षरों वाले ‘राम-राम’ के मधुर नाम को कूजते हुए वाल्मीकि रुपी कोयल की वंदना करता हूँ |
आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसंपदाम्‌ ।लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम्‌ ॥३५॥
मैं इस संसार के प्रिय एवं सुन्दर उन भगवान् राम को बार-बार नमन करता हूँ, जो सभी आपदाओं को दूर करने वाले तथा सुख-सम्पति प्रदान करने वाले हैं |
भर्जनं भवबीजानामर्जनं सुखसंपदाम्‌ ।तर्जनं यमदूतानां रामरामेति गर्जनम्‌ ॥३६॥
‘राम-राम’ का जप करने से मनुष्य के सभी कष्ट समाप्त हो जाते हैं | वह समस्त सुख-सम्पति तथा ऐश्वर्य प्राप्त कर लेता हैं | राम-राम की गर्जना से यमदूत सदा भयभीत रहते हैं |
रामो राजमणि: सदा विजयते रामं रमेशं भजे ।रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नम: ।रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोSस्म्यहम्‌ ।रामे चित्तलय: सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर ॥३७॥
राजाओं में श्रेष्ठ श्रीराम सदा विजय को प्राप्त करते हैं | मैं लक्ष्मीपति भगवान् श्रीराम का भजन करता हूँ | सम्पूर्ण राक्षस सेना का नाश करने वाले श्रीराम को मैं नमस्कार करता हूँ | श्रीराम के समान अन्य कोई आश्रयदाता नहीं | मैं उन शरणागत वत्सल का दास हूँ | मैं हमेशा श्रीराम मैं ही लीन रहूँ | हे श्रीराम! आप मेरा (इस संसार सागर से) उद्धार करें |
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥३८॥
  (शिव पार्वती से बोले –) हे सुमुखी ! राम- नाम ‘विष्णु सहस्त्रनाम’ के समान हैं | मैं सदा राम का स्तवन करता हूँ और राम-नाम में ही रमण करता हूँ |
इति श्रीबुधकौशिकविरचितं श्रीरामरक्षास्तोत्रं संपूर्णम्‌ ॥॥
श्री सीतारामचंद्रार्पणमस्तु ॥

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

ब्रह्म और माया

ब्रह्म और माया
ब्रह्म और माया–इनमें मूल भेद इस प्रकार है—ब्रह्म निर्गुण-निराकार, माया सगुन-साकार, ब्रह्म अनादि एवं निर्विकार है तथा माया विकार युक्त है! ब्रह्म नामातीत होते हुए भी उसके अनेक नाम-रूप हैं, जैसे निजांड, अच्छुत, अनंत, नादरूप, ज्योतरूप, चैतन्यरूप, सत्तारूप और साक्षीरूप आदि भी है!माया को दृश्य, सोपाधि, मिथ्या, परिमेय, विनाशी तथा सगुन बताया है और ब्रह्म को अदृश्य, निरुपाधि, सत्य, अपरिमेय, अविनाशी तथा निर्गुण! माया पंचभौतिक है और ब्रह्म शाश्वत, माया असार है और ब्रह्म सार, माया क्षणिक है और ब्रह्म नैरन्तर्य! माया मूलतः ब्रह्म में पूर्णतया अनर:स्थ निर्गुण थी! ब्रह्म से वह समद्भूत होकर सगुन बनी! प्रथम वह आकाश बनी! आकाश यानी अवकाश, उसमें स्पंदन हुआ, उससे अग्नि उत्पन्न हुआ, अग्नि से जल तथा जल से सृष्टि का उद्भव हुआ! प्रत्येक सृष्ट पदार्थ में परमात्मा स्थित रहता है, इस लिये भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है!—–“ईश्वरोsहं सर्व भूतेषु हृद्द्देशेsर्जुन तिष्टति”सृष्टि –ब्रह्माण्ड उत्पन्न होने से पूर्व मूल में माया त्रिगुणात्मिक बनी थी! तमोगुण से पंचभूतों की निर्मित हुई! जो जड़ और कठिन है वह पृथ्वी का रूप है तथा जो मृदु और प्रवाही है वह अपतत्त्व का रूप है तथा जिसमें चैतन्य और चांचल्य है वह वायु-तत्त्व का रूप है! शून्यत्व आकाश तत्त्व का रूप है! ब्रह्माण्ड के ऊपर मूल में माया सूक्ष्म-रूप है! सृष्टि में प्रथम जलचर निर्मित हुए, तत्पश्चात खेचर [पक्षी] और तत्पश्चात भूचर निर्मित हुए!****************************************जिस प्रकार जीवात्मा परमात्मा का अंश है, उसी प्रकार पिण्ड ब्रह्माण्ड का अतीव सूक्ष्म अंश है! ब्रह्माण्ड में जो कुछ विद्यामान है, वह अत्यंत सूक्ष्म रूप में भी रहता है!

गुरुवार, 11 दिसंबर 2014

गायत्री का महत्व

गायत्री का महत्व

संध्योपासना तथा गायत्री-जप का हमारे शास्त्रो में बहुत महत्व कहा गया है | द्विजातीमात्र के लिए इन दोनों कर्मो को अवश्यक कर्तव्य बतलाया गया है | श्रुति भगवती कहती है – ‘प्रतिदिन बिना नागा संध्योपासना अवश्य करनी चाहिए | शास्त्रों में तीन प्रकार के कर्मो का उल्लेख मिलता है – नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य | नित्यकर्म उसे कहते है, जिसे नित्य नियमपूर्वक- बिना नागा- कर्तव्य बुद्धि से एवं बिना किसी फलेच्छा के करने के लिए शास्त्रों की आज्ञा है |
नैमित्तिक कर्म वे कहलाते है, जो किसी विशेष निमित्त को लेकर खास-खास अवसरों पर आवश्यकरूप से किये जाते है |जैसे पितृपक्ष ( आश्र्विन कृष्णपक्ष) में पितरो के लिए श्राद्ध किया जाता है | नैमित्तिक कर्मो को भी शास्त्रों में आवश्यक कर्तव्य बतलाया गया है | और उन्हें भी कर्तव्य रूप से बिना किसी फलासंधि के करने की आज्ञा दी गयी है; परन्तु उन्हें नित्य करने की आज्ञा नहीं दी है | यह नित्य और नैमित्तिक कर्मो के भेद है |अवश्य ही नित्य और नैमित्तिक दोनों प्रकार के कर्मो के न करने में दोष बतलाया गया है | तीसरे काम्य कर्म वे है जो बिना किसी कामना से- किसी फलाभिसन्धी से किये जाते है और जिनके न करने में कोई दोष नहीं लगता | उनका करना, न करना सर्वथा कर्ता की इच्छा पर निर्भर है | जैसे पुत्र की प्राप्ति के लिए शास्त्रों में पुत्रेष्टि-यज्ञ का विधान पाया जाता है | जिसे पुत्र कामना हो, वह चाहे तो पुत्रेष्टि-यज्ञ कर सकता है | किन्तु जिसे पुत्र प्राप्त है अथवा जिसे पुत्र की इच्छा नहीं है या जिसने विवाह ही नहीं किया है अथवा विवाह करके गृहस्थाश्रम का त्याग कर दिया है, उसे पुत्रेष्टि-यज्ञ करने की कोई आवश्यकता नहीं है और इस यज्ञ के न करने से कोई दोष लगता हो, यह बात भी नहीं है; परन्तु नित्यकर्मो को तो प्रतिदिन करने की आज्ञा है, उसमे एक दिन का नागा भी क्षम्य नहीं है और प्रत्येक द्विजाती को जिसने शिखा-सूत्र का त्याग नहीं किया है, और चतुर्थ आश्रम (सन्यास) को छोड़ कर पहले तीनो आश्रमों में नित्यकर्मो का अनुष्ठान करना ही चाहिये | नित्यकर्म ये है – संध्या, तर्पण, बलिवैश्वदेव, स्वाध्याय, जप,होम आदि | इन सबमे संध्या और गायत्री-जप मुख्य है; क्योकि यह ईश्वर की उपासना है और बाकी कर्म देवताओ, ऋषियो तथा पितरो आदि के उदेश्य से किये जाते है |यद्पि इन सबको भी परमेश्वर की प्रीति के लिए ही किया जाना चाहिये |
संध्या न करने वाले को तो बड़ा दोष का भागी बतलाया गया है | देवीभागवत में लिखा है – ‘जो द्विज संध्या नहीं जानता और संध्योपासना नहीं करता, वह जीता हुआ ही शूद्र हो जाता है और मरने पर कुत्ते की योनि को प्राप्त होता है |’ (११|१६|६)
दक्षस्मृति का वचन है – ‘संध्याहीन द्विज नित्य ही अपवित्र है और सम्पूर्ण धर्मकार्य करनेमें अयोग्य है| वह जो कुछ भी कर्म करता है उसका फल उसे नहीं मिलता|’ (२|२३)
भगवान् मनु कहते है – ‘जो द्विज प्रात:काल और सांयकाल: की संध्या नहीं करता, उसे शुद्र की भाँती द्विजातियो के करने योग्य सभी कर्मो से अलग कर देना चाहिए |’ (मनु० २|२०३)
बात भी बिलकुल ठीक ही है | यह मनुष्य जन्म हमे ईश्वरोपासना के लिए ही मिला है | संसार के भोग तो हम अन्य योनियो में भी भोग सकते है, परन्तु ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करने तथा उनकी आराधना करने का अधिकार तो हमे मनुष्य योनी में ही मिलता है | मनुष्यों में भी जिनका द्विजाति-संस्कार हो चुका है, वे लोग भी यदि नित्य नियमित रूप से ईश्वरोपासना न करे, तो वे अपने अधिकार का दुरूपयोग करते है, उन्हें द्विजाति कहलाने का क्या अधिकार है ? जो मनुष्य जन्म पाकर भी भगवद उपासना से विमुख रहते है, वे मरने के बाद मनुष्य योनी से नीचे गिरा दिए जाते है और इस प्रकार भगवान की दया से जन्म-मरण के चक्कर से छुटने का जो सुलभ साधन उन्हें प्राप्त हुआ था उसे अपनी मुर्खता से खो बैठते है | मनुष्य में भी जिन्होंने मलेच्छ, चांडाल, शुद्र आदि योनियो से ऊपर उठकर द्विज-शरीर प्राप्त किया है, वे भी यदि ईश्वर की आराधना नहीं करते, वेद रुपी ईश्वरीय आज्ञा का उल्लंघन करते है, उन्हें यदि मरने पर कुत्ते की योनी मिले तो इसमें आश्चर्य क्या है? अत: प्रत्येक द्विज कहलाने-वाले को चाहिए की वह नित्य नियमपूर्वक दोनों समय(अर्थात प्रात:काल और सांयकाल) वैदिक विधि से अर्थात् वेदोक्त मंत्रो से संध्योपासना करे | यो तो शास्त्रों में सांय:, प्रात: एवं मध्यान्ह:काल में –तीनो समय ही संध्या करने का विधान है; परन्तु जिन लोगो को मध्यान: से समय जीविकोपार्जन के कार्य से अवकाश न मिल पाए अथवा जो और किसी अड़चन के कारण मध्यान काल की संध्या को बराबर न नीभा सके, उन्हें चाहिए कि वे दिन में कम से कम दो बार अर्थात् प्रात:काल और सायंकाल तो नियमित रूप से संध्या अवश्य ही करे |
संध्या में क्रिया की प्रधानता तो है ही, परन्तु जिस-जिस मन्त्र का जिस-जिस क्रिया में विनियोग है, उस उस क्रिया को विधिपूर्वक करते हुए उस मन्त्र का शुद्ध उच्चारण भी करना चाहिये और साथ-साथ उस मन्त्र के अर्थ की ओर लक्ष्य रखते हुए उसी भाव से भावित होने की चेष्टा करनी चाहिये | उदाहरणत: ‘सुर्यस्च मा०’ इस मन्त्र का शुद्ध उच्चारण करके आचमन करना चाहिये और साथ ही इस मन्त्र के अर्थ की ओर लक्ष्य रखते हुए यह भावना करनी चाहिये की जिस प्रकार यह अभिमंत्रित जल मेरे मुँह में जा रहा है उसी प्रकार मन, वचन, कर्म से मैंने व्यतीत रात्रि में जो-जो पाप किये हो और इस समय जो भी पाप मेरे अन्दर हो वे भगवान् सूर्य की ज्योति में विलीन हो रहे है, भस्म हो रहे है;भगवान के सामने पापो की ताकत ही क्या कि जो वे ठहर सकें |
आजकल कुछ लोग ऐसा कहते है कि संध्या का अर्थ है ईश्वरोपासना | ईश्वर की दृष्टि में सभी भाषाएँ समान है और सभी भाषाओ में की हुई प्रार्थना एवं स्तुति उनके पास पहुँच सकती है; क्योंकि सभी भाषाएँ उन्हीं की रची हुई है और ऐसी कोई भाषा नहीं, जिसे वे न समझते हो | फिर क्यों न हम लोग अपनी मातृ भाषा में ही उनकी प्रार्थना और स्तुति करे ? संस्कृत अथवा वैदिक भाषा की अपेक्षा अपनी निज की भाषा में हम अपने भावो को अधिक स्पष्ट रूप में व्यक्त कर सकते है | जिस समय देश में वैदिक अथवा संस्कृत भाषा बोली जाती रही हो, उस समय का वैदिक मंत्रो के द्वारा संध्या करना ठीक रहा; परन्तु वर्तमान युग में जब की संस्कृत के जानने वाले लोग बहुत कम रह रह गए है – यह तक की वैदिक मंत्रो के उच्चारण में ही लोगो को कठिनाई का अनुभव होता है, उनका अर्थ जानना और उनके भावो में भावित होना तो दूर रहा | इस लकीर को पीटने से क्या लाभ, बल्कि ईश्वर तो घट-घट में व्याप्त है, वे तो हमारे ह्रदय की सूक्ष्मतम् बातो को भी जानते है | उनके लिए तो भाषा के आडम्बर की आवश्यकता ही नहीं है | उनके सामने तो ह्रदय की मूक प्रार्थना ही पर्याप्त है | बल्कि सच्ची प्रार्थना तो हृदय की होती है | बिना हृदय के केवल तोते की तरह रटे हुए शब्दों के उच्चारण मात्र से क्या होता है |
यह शंका सर्वथा निर्मूल नहीं है | ईश्वर की दृष्टि में अवश्य ही भाषा का कोई विशेष महत्व नहीं है | उनकी दृष्टि में सभी भाषाएँ समान है और सभी प्रार्थनाओ को वे सुनते है और उत्तर चाहने पर उसी भाषा में उसका उत्तर भी देते है यह भी ठीक है कि प्रार्थना में भाव की प्रधानता है, उसका सम्बन्ध हृदय से है और अपने भावो से जितने स्पष्ट रूप से हम अपनी मातृ भाषा में रख सकते है,उतना स्पष्ट हम और किसी भाषा में नहीं रख सकते | यह भी निर्विवाद है की हृदय की मूक प्रार्थना जितना काम कर सकती है, केवल कुछ चुने हुए शब्दो के उच्चारणमात्र से वह कार्य नहीं बन सकता | इन सब बातो को स्वीकार करते हुए भी हम संध्या को उसी रूप में करने के पक्षपाती है, जिस रूप में उसको करने का शास्त्रों में विधान है और जिस रूप में लाखो-करोडो वर्षो से,बल्कि अनादि काल से हमारे पूर्वज करते आये है |
संध्या में ईश्वर की स्तुति, ध्यान और प्रार्थना है और उसके उतने अंश की पूर्ति अपनी मात्रृभाषा में, अपने ही शब्दों में की हुई प्रार्थना से भी अथवा हृदय की मूक प्रार्थना से भी हो सकती है |जो लोग इस रूप में प्रार्थना करना चाहते है अथवा करते है वे अवश्य ऐसा करें | उनका हम विरोध नहीं करते है बल्कि हृदय से समर्थन ही करते है; क्योंकि वैदिक-मंत्रो के उच्चारण का सबको अधिकार भी नहीं है न सबका उनमें विश्वास ही है | अन्यान्य मत और मजहबों की भाँति सनातन वैदिक धर्म की मान्यता यह नहीं है कि अन्य मतावलम्बियों को ईश्वर की प्राप्ति हो ही नहीं सकती, उनके लिए ईश्वर का द्वार बंद है | अधिकार न होने के कारण जो लोग वैदिक मंत्रो का उच्चारण नहीं कर सकते अथवा जिनका वैदिक धर्म में विश्वास नहीं है वे लोग अपने-अपने ढंग की प्रार्थना के द्वारा ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त कर सकते है और जिन्हें वैदिक संध्या करने का अधिकार प्राप्त है , वे लोग भी इस रूप में प्रार्थना कर सकते है; परन्तु उन्हें संध्या का परित्याग नहीं करना चाहिए | संध्या के साथ-साथ वे ईश्वर को रीझाने के लिए चाहे जितने और साधन भी कर सकते है | ये सभी साधन एक दूसरे के सहायक ही है, कोई किसी से छोटा अथवा बड़ा नहीं कहा जा सकता |
यह ठीक है कि ईश्वर की दृष्टि में भाषा का कोई विशेष महत्व नहीं है और वैदिक भाषा भी अनन्य भाषाओ की भांति अपने हार्दिक अभिप्राय को व्यक्त करने का एक साधनमात्र है ; परंतु वैदिक धर्मावलम्बियो की धारणा इस सम्बन्ध में कुछ दूसरी ही है | उनकी दृष्टि में वेद अपौरूषेय है, वे किसी मनुष्य के द्वारा बनाए हुए नहीं है | वे साक्षात् ईश्वर के नि:श्वाश है , ईश्वर की वाणी है , ‘यस्य नि:स्वशिस्तम् वेदा:’ |’ ऋषि लोग उनके द्रष्टा मात्र है - ‘ऋषयो मन्त्रद्रष्टार: |’ अनुभव करने वाले है, रचयिता नहीं | सृष्टि के आदि में भगवान नारायण पहले-पहल ब्रह्मा को उत्पन्न करते है और उन्हें वेदों का उपदेश देते है | इसलिए हम वैदिक धर्मावलम्बियो के लिए वेद बड़े महत्व की वस्तु है | वेद ही ईश्वरीय ज्ञान की अनादि स्रोत है | उन्ही से सारा ज्ञान निकला है | धर्म का आधार भी वेद ही है | हमारे कर्तव्य-अकर्तव्य के निर्णायक वेद ही है | सारे शास्त्र वेद की ही आधार को लेकर चलते है | स्मृति-आगम-पुराणादि शास्त्रों की प्रमाणता वेदमूलक ही है | जहाँ श्रुति और स्मृति का परस्पर विरोध दृष्टिगोचर हो,वहाँ श्रुति को ही बलवान माना जाता है | तात्पर्य यह है कि वेद हमारे सर्वस्व है, वेद हमारे प्राण है, वेदों पर ही हमारा जीवन अवलंबित है, वेद ही हमारे आधार स्तम्भ है | वेदों की जितनी भी महिमा गई जाय, थोड़ी है |
जिन वेदों की हमारे शास्त्रों में इतनी महिमा है, उन वेदों के अंगभूत मंत्रो की अन्य किसी भाषा अथवा अन्य किसी वाक्य-रचना के साथ तुलना नहीं की जा सकती | भावो को व्यक्त करने के लिए भाषा की सहायता आवश्यक होती है | भाषा और भाव का परस्पर अविच्छेद सम्बन्ध है | हमारे शास्त्रों ने तो शब्द को भी अनादि, नित्य एवं ब्रह्म रूप ही माना है तथा वाच्य एवं वाचक का अभेद स्वीकार किया है | इसी प्रकार वैदिक वेद मंत्रो का भी अपना एक विशेष महत्व है | उनमे एक विशेष शक्ति निहित है, जो उनके उच्चारण मात्र से प्रकट हो जाती है, अर्थ की ओर लक्ष्य रखते हुए उच्चारण करने पर तो वह और जल्दी आविर्भूत होती है | इसके अतिरिक्त आनादी काल से इतने असंख्य लोगो ने उनकी आवृति एवं अनुष्ठान करके उन्हें जगाया है कि उन सबकी शक्ति भी उनके अंदर संक्रांत हो गयी है | ऐसी दशा में तोते की भांति बिना समझे हुए भी उनका स्वर सहित शुद्ध उच्चारण करने का कम महत्त्व नहीं है; फिर अर्थ को समझते हुए उनके भाव में भावित होकर श्रद्धा और प्रेमपूर्वक उनके उच्चारण का तो इतना अधिक महत्व है कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता | वह तो सोने में सुगंध का काम करता है | यही नहीं, वैदिक मंत्रो के उच्चारण का तो एक अलग शास्त्र ही है, उसकी तो एक-एक मात्रा और एक-एक स्वर का इतना महत्व है की उसके उच्चारण में जरा सी त्रुटी हो जाने से अभिप्रेत अर्थ से विपरीत अर्थ का बोध हो सकता है | कहा भी है –
वेद मन्त्र के एक शब्द का भी यदि ठीक प्रयोग न हुआ, उसके स्वर, मात्रा या अक्षर के उच्चारण में त्रुटी हो गयी, तो उससे अभीष्ट अर्थ का प्रतिपादन नहीं होता |’
यही कारण है कि लाखो-करोडो वर्षो से वैदिक लोग परंपरा से पद, क्रम, घन और जटासहित वैदिक मंत्रो का सस्वर कंठस्थ करते आये है और इस प्रकार उन्होंने वैदिक परंपरा और वैदिक साहित्य को जीवित रखा | इसलिये वैदिक मंत्रो की उपयोगिता के विषय में शंका न करके द्विजाति मात्र को उपनयन संस्कार के बाद संध्या को अर्थसहित सीख लेना चाहिए और फिर कम-से-कम सांय:काल और प्रात:काल दोनों संधियों के समय श्रद्धा-प्रेम और विधि पूर्वक अनुष्ठान करना चाहिए | ऐसा करने से उन्हें बहुत जल्दी लाभ प्रतीत होगा और फिर वे इसे कभी छोड़ना न चाहेंगे |
इसके अतिरिक्त द्विजाति मात्र को नित्य नियमपूर्वक संध्या करने के लिए वेदों की स्पष्ट आज्ञा है, जैसा कि हम ऊपर कह आये है उस आज्ञाका पालन करने के लिए हमे संध्योपासना नित्य करनी चाहिये; क्योकि वेद ईश्वर की वाणी होने के कारन हमारे लिए परम मान्य है और उनकी आज्ञा की अवेलहना करना हमारे लिए अत्यंत हानिकर है | इस दृष्टि से भी संध्योपासना करना परम आवश्यक है | पुराने ज़माने में तो लोग पूरा वेद कम-से-कम अपनी शाखा पूरी कंठ किया करते थे और इसके लिए वेदों की स्पष्ट आज्ञा भी है , वेदों का अध्ययन अवश्य करना चाहिये | यदि हम पूरा वेद अथवा पूरी शाखा कंठ नहीं कर सकते तो कम-से-कम संध्या मात्र तो अवश्य कर लेना चाहिये और उसका प्रतिदिन अनुष्ठान करना चाहिये जिससे वैदिक संस्कृति का लोप न हो और हम लोग अपने स्वरुप और धर्म की रक्षा कर सके | नियमपालन और संगठन की दृष्टि से इसकी बड़ी आवश्यकता है , नहीं तो एक दिन हमलोग विजातीय संस्कारो के प्रवाह में बहकर अपना सब कुछ गवाँ बैठेंगे और अन्य प्राचीन जातियो की भांति हमारा भी नाममात्र शेष रह जायेगा | वह दिन जल्दी न आवे इसके लिए हमे सतर्क हो जाना चाहिये और यदि हम संसार में जीवित रहना चाहते है तो हमे अपने प्राचीन संस्कृति की रक्षा के लिए कटिबद्ध हो जाना चाहिये | भगवान तो हमारे और हमारी संस्कृति के सहायक है ही;अन्यथा इस पर ऐसे-ऐसे प्रबल आक्रमण हुए कि उनके आघात से कभी की नष्ट हो गयी होती |
संध्या की हमारे शास्त्रों ने बड़ी महिमा गाई है | वेदों में कहा है – ‘उदय और अस्त होते हुए सूर्य की उपासना करने वाला विद्वान ब्राह्मण सब प्रकार के कल्याण को प्राप्त करता है |’ (तै० आ० प्र० २ अ० २)
महर्षि याज्ञवल्क्य कहते है – ‘दिन या रात्रि के समय अनजान में जो पाप बन जाता है, वह सारा ही तीनो काल की संध्या करने से नष्ट हो जाता है |’ (३ |३०८)
महर्षि कात्यायन का वचन है – ‘जो प्रतिदिन स्नान करता है तथा कभी संध्या-कर्म का लोप नहीं करता, दोष उसके पास भी नहीं फटकते – जैसे गरुड़ जी के पास सर्प नहीं जाते |’ (११ |१६)
समय की गति सूर्य के द्वारा नियमित होती है | सूर्य भगवान् जब उदय होते है, तब दिन का प्रारम्भ तथा रात्रि का शेष होता है; इसको प्रात:काल भी कहते है | जब वे आकाश के शिखर पर आरूढ़ होते है, उस समय को दिन का मध्य अथवा मध्याह्न कहते है और जब वे अस्तांचल को जाते है, तब दिन का शेष और रात्रि का प्रारंभ होता है | इसे सायँकाल भी कहते है | ये तीन काल उपासना के मुख्य काल माने गए है | यो तो जीवन का प्रत्येक क्षण उपासनामय होना चाहिए, परन्तु इन तीन काल में तो भगवान् की उपासना अत्यंत नितान्त आवश्यक बताई गयी है | इन तीनो समय की उपासना का नाम ही क्रमश:प्रात:संध्या, मध्यान:संध्या, और साय:संध्या है | प्रत्येक वस्तु की तीन अवस्थाये –उत्पत्ति, पूर्ण विकाश और विनाश | जीवन की भी तीन दशाये होती है जन्म, पूर्ण युवावस्था, और मृत्यु | हमे इन अवस्थाओ का स्मरण दिलाने के लिए तथा इस प्रकार अन्दर संसार के प्रति वैराग्य की भावना जाग्रत करने के लिए ही मानो सूर्य भगवान् प्रतिदिन उदय होने, उन्नति के शिखर पर आरूढ़ होने और फिर अस्त होने की लीला करते है| भगवान् की इस त्रिविध लीला के साथ ही हमारे शास्त्रों ने तीन काल की उपासना जोड़ दी है |
भगवान् सूर्य परमात्मा नारायण के साक्षात् प्रतीक है, इसलिये वे सूर्यनारायण कहलाते है | यही नहीं,स्वर्ग के आदि में भगवान् नारायण ही सूर्य रूप से प्रगट होते है; इसलिए पंचदेवो में सूर्य की भी गणना है | यों भी वे भगवान् की प्रत्यक्ष दीखने-वाले सारे देवो में श्रेष्ठ है | इसलिए संध्या में सूर्य रूप से ही भगवान् की उपासना की जाती है | उनकी उपासना से हमारे तेज, बल, आयु एवं नेत्रों की ज्योति की वृद्धि होती है और मरने के समय वे हमे अपने लोक मेंसे होकर भगवान् के परमधाम में ले जाते है; क्योकि भगवान् के परमधाम का रास्ता सूर्यलोक में से होकर ही गया है | शास्त्रों में लिखा है की योगीलोग तथा कर्तव्यरूप से युद्ध में शत्रु के सम्मुख लड़ते हुए प्राण देने वाले क्षत्रिय वीर सूर्यमंडल को भेदकर भगवान् के धाम को चले जाते है | हमारी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान् सूर्य यदि हमे भी उस लक्ष्य तक पंहुचा दे तो इसमें उनके लिए कौन बड़ी बात है| भगवान् अपने भक्तो पर सदा ही अनुग्रह करते आये है | हम यदि जीवनभर नियमपूर्वक श्रद्धा एवं भक्ति के साथ निष्काम भाव से उनकी आराधना करेंगे, तो क्या वे मरते समय हमारी इतनी भी मदद नहीं करेंगे ? अवश्य करेंगे | भक्तो की रक्षा करना तो भगवान् का विरद ही ठहरा | अत: जो लोग आदरपूर्वक तथा नियम से बिना नागा तीनो समय अथवा कम-से-कम दो समय (प्रात:काल एवं साय:काल) ही भगवान् सूर्य की आराधना करते है,उन्हें विश्वास करना चाहिये कि उनका कल्याण निश्चित है और वे मरते समय भगवान् सूर्य की कृपा से अवश्य परम गति को प्राप्त होंगे |
इस प्रकार युक्ति से भी भगवान् सूर्य की उपासना हमारे लिए अत्यंत कल्याणकरक, थोड़े परिश्रम के बदले में महान फल देने वाली अतएव अवश्य कर्तव्य है | अत द्विजाति-मात्र को चाहिये की वे लोग नियमपूर्वक त्रिकालसंध्या के रूप में भगवान् सूर्य की उपासना किया करे और इस प्रकार लौकिक एवं पारमार्थिक दोनों प्रकार से लाभ उठावे | आशा है, सभी लोग इस सस्ते सौदे को सहर्ष स्वीकार करेंगे; इसमें खर्च एक पैसे का भी नहीं है और समय भी बहुत कम लगता है, परन्तु इसका फल अत्यंत महान है |इसलिए सब लोगो को श्रधा, प्रेम एवं लगन के साथ इस कर्म के अनुष्ठान में लग जाना चाहिये | फिर सब प्रकार से मंगल-ही-मंगल है |
जब कोई हमारे पूज्य महापुरुष हमारे नगर में आते है और उसकी सूचना हमे पहले से मिली हुई रहती है तो हम उनका स्वागत करने के लिए अर्घ्य, चन्दन, फूल, माला आदि पूजा की सामग्री लेकर पहले से ही स्टेशन पर पहुचँ जाते है,उत्सुकता पूर्वक उनकी बाट जोहते है और आते ही उनका बड़ी आवभगत एवं प्रेम के साथ स्वागत करते है | हमारे इस व्यवहार से उन आगंतुक महापुरुष को बड़ी प्रसन्नता होती है और यदि हम निष्काम भाव से अपना कर्तव्य समझकर उनका स्वागत करते है तो वे हमारे इस प्रेम के आभारी बन जाते है और चाहते है कि किस प्रकार बदले में वे हमारी कोई सेवा करे | हम यह भी देखते है कि कुछ लोग अपने पूज्य पुरुष के आगमन की सूचना होने पर भी उनके स्वागत के लिए समय पर स्टेशन नहीं पहुँच पाते और जब वे गाड़ी से उतरकर प्लेटफार्म पर पहुँच जाते है तब दौड़े हुए आते है और देर के लिए क्षमा-याचना करते हुए उनकी पूजा करते है | और कुछ इतने आलसी होते है कि जब हमारे पूज्य पुरुष अपने डेरे पर पहुँच जाते है और अपने कार्य में लग जाते है, तब वे धीरे-धीरे फुरसत से अपने और सब काम निपटाकर आते है और उन आगंतुक महानुभाव की पूजा करते है | वे महानुभाव तो तीनो प्रकार के स्वागत करने वालो की पूजा से प्रसन्न होते है और उनका उपकार मानते है | पूजा न करने वालो की अपेक्षा देर-सबेर करने वाले भी अच्छे है ;किन्तु दर्जे का फर्क तो रहता ही है | जो जितनी तत्परता, लगन, प्रेम एवं आदर बुद्धि से पूजा करते है उनकी पूजा उतनी ही महत्व की और मूल्यवान होती है और पूजा ग्रहण करने वालो को उससे उतनी ही प्रसन्नता होती है |
ऊपर जो बात आगन्तुक महापुरुष की पूजा के सम्बन्ध में कही गयी है | वही बात संध्या के सम्बन्ध में समझना चाहिये| भगवान सूर्यनारायण प्रतिदिन सबेरे हमारे इस भूमण्डल पर महापुरुष की भाँती पधारते है; उनसे बढ़कर हमारा पूज्यपात्र और कौन होगा | अत: हमें चाहिये कि हम ब्राह्म:मुहूर्त में उठकर शौच-स्नानादि से निवृत होकर शुद्ध वस्त्र पहनकर उनका स्वागत करने के लिए उनके आगमन से पूर्व ही तैयार हो जाये और आते ही बड़े प्रेम से चन्दन-पुष्प आदि से युक्त शुद्ध ताजे जल से उन्हें अर्ध्य प्रदान करे, उनकी स्तुति करे, जप करे | भगवान सूर्य को तीन बार गायत्री मन्त्र का उच्चारण करते हुए अर्ध्य प्रदान करना, गायत्री मन्त्र का (जिसमे उन्हीं की परमात्मभाव से स्तुति की गयी है और उनसे बुद्धि को परमात्म सुखी करने की प्रार्थना की गयी है ), जप करना और खड़े होकर उनका उपस्थान करना,स्तुति करना – यही संध्योपासना के मुख्य अंग है ; शेष कर्म इन्ही के अंगभूत एवं सहायक है | जो लोग सूर्योदय के समय संध्या करने बैठते है वे एक प्रकार से अतिथि के स्टेशन पहुँच जाने और गाडी से उतर जाने पर उनकी पूजा करने दौड़ते है और जो लोग सूर्योदय हो जाने के बाद फुर्सत से अन्य आवश्यक कार्यो से निवृत होकर संध्या करने बैठते है,वे मानो अतिथि के अपने डेरे पर पहुँच जाने पर धीरे-धीरे उनका स्वागत करने पहुँचते है|
जो लोग संध्योपासना करते ही नहीं, उनकी अपेक्षा तो वे भी अच्छे है जो देर-सबेर,कुछ भी खाने के पूर्व संध्या कर लेते है |उनके द्वारा कर्म का अनुष्ठान तो हो ही जाता है और इस प्रकार शास्त्र की आज्ञा का निर्वाह हो जाता है | वे कर्मलोप के प्रायश्चित के भागी नहीं होते |उनकी अपेक्षा वे अच्छे है, जो प्रात:काल में तारो के लुप्त हो जाने पर संध्या प्रारम्भ करते है | और उनसे भी वे श्रेष्ठ वे है, जो उषाकाल में ही तारे रहते संध्या करने बैठ जाते है, सूर्योदय होने तक खड़े होकर गायत्री-मन्त्र का जप करते है और इस प्रकार अपने पूज्य आगंतुक महापुरुष की प्रतीक्षा, उन्ही के चिंतन में उतना समय व्यतीत करते है और उनका पदार्पण –उनका दर्शन होते ही जप बंद कर उनकी स्तुति – उनका उपस्थान करते है | इसी बात को लक्ष्य में रखकर संध्या के उत्तम, मध्यम और अधम –तीन भेद किये गए है |
प्रात:संध्या के लिए जो बात कही गयी है, सांयसंध्या के लिए उससे विपरीत बात समझनी चाहिये | अर्थात सांयसंध्या उत्तम वह कहलाती है, जो सूर्य के रहते की जाय; मध्यम वह है, जो सूर्यास्त होने पर की जाये और अधम वह है, जो तारो के दिखायी देने पर की जाये | कारण यह है की अपने पूज्य पुरुष के विदा होते समय पहले ही से सब काम छोड़ कर जो उनके साथ-साथ स्टेशन पहुचता है, उन्हें आराम से गाड़ी पर बिठाने की व्यवस्था कर देता है और गाड़ी छुटने पर हाथ जोड़े हुए प्लेटफार्म पर खड़ा-खड़ा प्रेम से उनकी और ताकता रहता है और गाड़ी के आँखों से ओझल हो जाने पर ही स्टेशन से लौटता है, वही मनुष्य उनका सबसे अधिक सम्मान करता है और प्रेम-पात्र बनता है | जो मनुष्य ठीक गाड़ी के छुटने के समय हाँफता हुआ स्टेशन पर पहुचता है और चलते-चलते दूर से अतिथि के दर्शन कर पाता है वह निश्चय ही अतिथि की दृष्टि में उतना प्रेमी नहीं ठहरता, यद्यपि उसके प्रेम से भी महानुभाव अतिथि प्रसन्न ही होते है और उसके ऊपर प्रेमभरी दृष्टि रखते है | उससे भी नीचे दर्जे का प्रेमी वह समझा जाता है, जो अतिथि के चले जाने पर पीछे से स्टेशन पहुँचता है और फिर पत्र द्वारा अपने देरी से पहुँचने की सूचना देता है और क्षमा-याचना करता है | महानुभाव अतिथि उसके भी आतिथ्य को मान लेते है और उस पर प्रसन्न ही होते है |
यहाँ यह नहीं मानना चाहिये कि भगवान् भी साधारण मनुष्यों की भांति राग-द्वेष से युक्त है, वे पूजा करने वाले पर प्रसन्न होते है और न करने वाले पर नाराज़ होते है या उनका अहित करते है | भगवान की सामान्य कृपा तो सब पर समानरूप से रहती है | सूर्यनारायण अपनी उपासना न करने वालो को भी उतना ही ताप और प्रकाश देते है, जितना वे उपासना करने वालो को देते है |उसमे न्युनाधिकता नहीं होती | हाँ जो लोग उनसे विशेष लाभ लेना उठाना चाहते है,जीवन-मरण के चक्कर से छुटना चाहते है, उनके लिए तो उपासना की आवश्यकता है ही और उनमे आदर और प्रेम की दृष्टी से तारतम्य भी होता ही है | भगवान् ने गीता में कहा है - ‘मैं सब भूतों में समभाव से व्यापक हूँ, न मेरा कोई अप्रिय है, न प्रिय है; परन्तु जो भक्त मुझको प्रेम से भजते है, वे मुझमें है और मैं भी उनमे प्रत्यक्ष प्रगट हूँ |’ (गीता ९ | २९)
ऊपर के विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि संध्या के सम्बन्ध में पहली बात तो यह है कि उसे नित्य नियमपूर्वक किया जाये | काल का लोप हो जाये तो कोई बात नहीं किन्तु कर्म का लोप न हो | इस प्रकार संध्या करने वाला भी न करनेवाले से श्रेष्ठ है | दूसरी बात यह है कि जहाँ तक संभव हो, तीनो काल की संध्या ठीक समय पर की जाये अर्थात प्रात: संध्या सूर्योदय से पूर्व और सांय:संध्या सूर्यास्त से पूर्व की जाये और मध्यान्ह:संध्या ठीक दोपहर के समय की जाये | समय की पाबन्दी रखने से नियम की पाबंदी तो अपने-आप हो जाएगी | इसलिए इस प्रकार ठीक समय पर संध्या करने वाला पूर्वोक्त की अपेक्षा श्रेष्ठ है | तीसरी बात है कि तीनो काल की अथवा दो काल की संध्या नियमपूर्वक और समय पर तो हो ही, साथ ही प्रेमपूर्वक एवं आदर भाव से हो तो और भी उत्तम है | किसी कार्य में प्रेम और आदरबुद्धि होने से वह अपने-आप ठीक समय और नियम पूर्वक होने लगेगा | जो लोग इस प्रकार तीनो बात का ध्यान रखते हुए श्रद्धा-प्रेम-पूर्वक भगवान् सूर्यनारायण की जीवन भर उपासना करेंगे, उनकी मोक्ष निश्चित है |
महाभारत के आदिपर्व में जरत्कारू ऋषि की कथा आती है | वे बड़े भारी तपस्वी और मनस्वी थे | उन्होंने सर्पराज वासुकी की बहिन अपने ही नाम की नागकन्या से विवाह किया | विवाह के समय उन्होंने कन्या से यह शर्त की थी की यदि तुम मेरा कोई भी अप्रिय कार्य करोगी तो में उसी क्षण तुम्हारा परित्याग कर दूंगा | एक बार की बात है, ऋषि अपनी धर्मपत्नी की गोद में सिर रखे लेट हुए थे की उनकी आँख लग गयी | देखते-देखते सूर्यास्त का समय हो आया | किन्तु ऋषि जागे नहीं, वे निंद्रा में थे | ऋषि पत्नी से सोचा की ऋषि को जगाती हूँ तो ये नाराज़ होकर मेरा परित्याग कर देंगे और यदि नहीं जगाती हूँ तो संध्या वेला टल जाती है और ऋषि का धर्मका लोप हो जाता है | धर्मप्राणा ऋषि पत्नी से अंत में यही निर्णय किया की पतिदेव मेरा त्याग भले ही कर दे, परन्तु उनके धर्म की रक्षा मुझे अवश्य करनी चाहिये | यही सोच कर उन्होंने पति को जगा दिया | ऋषि ने अपनी इच्छा के विरुद्ध जगाये जाने पर रोष प्रगट किया और अपनी पूर्व प्रतिज्ञा का स्मरण दिलाकर पत्नी को छोड़ देने पर ऊतारू हो गए | जगाने का कारण बताने पर ऋषि ने कहा की ‘हे मुग्धे ! तुमने इतने दिन मेरे साथ रह कर भी मेरे प्रभाव को नहीं जाना | मैंने आज तक कभी संध्या की वेला का अतिक्रमण नहीं किया | फिर क्या आज सूर्य भगवान् मेरी अर्ध्य लिए बिना अस्त हो सकते थे क्या ? कभी नहीं | सच्च है, जिस भक्त की उपासना में इतनी दृढ निष्ठा होती है, सूर्य भगवान् उसकी इच्छा के विरुद्ध कोई कार्य नहीं कर सकते | हठीले भक्तो के लिए भगवान् को अपने नियम भी तोड़ने पड़ते है |
अंत में हम गायत्री के सम्बन्ध में कुछ निवेदन कर अपने लेख को समाप्त करते है | संध्या का प्रधान अंग गायत्री-जप ही है |गायत्री को हमारे शास्त्रों में वेदमाता कहा गया है | गायत्री के महिमा चारो ही वेद गाते है | जो फल चारो वेद के अध्यन से होता है वह एकमात्र व्यहतिपुर्वक गायत्री मन्त्र के जप से हो सकता है |इसलिए गायत्री-जप की शास्त्रों में बड़ी महिमा गई गयी है | भाग्वान्माणु कहते है की‘जो पुरुष प्रतिदिन आलस्य का त्याग करके तीन वर्ष तक गायत्री का जप करता है वह मृत्यु के बाद वायु रूप होता है और उसके बाद आकाश की तरह व्यापक होकर परब्रह्म को प्राप्त होता है | ‘ ( महा आदि० ४७|२५-२६)
जप तीन प्रकार का कहा गया है – (१) वाचिक, (२) उपांशु एवं (३) मानसिक | एक की अपेक्षा दुसरे को उतरोतर अधिक लाभदायक मन गया है | अर्थात वाचिक की अपेक्षा उपाशु और उपांशु की अपेक्षा मानसिक जप अधिक लाभदायक है | जप जितना अधिक हो उतना ही विशेष लाभदायक होता है |
महाभारत, शांन्तिपर्व (मोक्ष धर्म पर्व ) के १९९वे तथा २०० वे अध्याय में गायत्री की महिमा का बड़ा सुन्दर उपाख्यान मिलता है | कौशिक गोत्र में उत्पन्न हुआ पिप्पलाद का पुत्र एक बड़ा तपस्वी धर्मनिष्ठ ब्राह्मण था | वह गायत्री का जप किया करता था | लगातार एक हज़ार वर्ष तक गायत्री का जप कर चुकने पर सावत्री देवी ने उनको साक्षात् दर्शन कहा कि मैं तुझपर प्रसन्न हूँ | परन्तु उस समय पिप्पलाद का पुत्र जप कर रहा था | वह चुपचाप जप करने में लगा रहा और सावित्री देवी को कुछ भी उत्तर नहीं दिया | वेदमाता सावित्री देवी उसकी इस जपनिष्ठा पर और भी अधिक प्रसन्न हुई और उसके जप की प्रशंसा करती वही खड़ी रही | जिसके साधन में ऐसी दृढ निष्ठा होती है की साध्य चाहे भले ही छुट जाये पर साधन नहीं नहीं छुटना चाहिये, उनसे साधन तो छूटता ही नहीं, साध्य भी श्रद्धा और प्रेमके कारण उनके पीछे-पीछे उनके इशारे पर नाचता रहता है | साधन निष्ठा की ऐसी महिमा है | जप की संख्या पूरी होने पर वह धर्मात्मा ब्राह्मण खड़ा हुआ और देवी के चरणों में गिरकर उनसे यह प्रार्थना करने लगा की ‘यदि आप मुझ पर प्रसन्न है तो कृपा करके मुझे यह वरदान दीजिये की मेरा मन निरंतर जप में लगा रहे और जप करने की मेरी इच्छा उत्तरोतर बढती रहे | भगवती उस ब्राह्मण के निष्काम भाव को देख कर बड़ी प्रसन्न हुई और ‘तथास्तु’ कहकर अंतर्ध्यान हो गयी |
ब्राह्मण ने फिर जप प्रारंभ कर दिया | देवताओ ब्राह्मण ने फिर जप प्रारंभ कर दिया | देवताओ के सौ वर्ष और बीत गये |पुरश्चरण के समाप्त हो जाने पर साक्षात् धर्म ने प्रसन्न होकर ब्राह्मण को दर्शन दिये और स्वर्गादी लोक मांगने को कहा |परन्तु ब्राह्मण ने धर्म को भी यही उत्तर दिया की ‘मुझे सनातन लोको से क्या प्रयोजन है, मैं तो गायत्री का जप करके आनंद करूँगा |’ इतने में ही काल (आयु का परिमाण करने वाला देवता ), मृत्यु ( प्राणों का वियोग करने वाला देवता ) और यम (पुन्य-पाप काफल देना वाला देवता ) भी उसकी तपस्या के प्रभाव से वह आ पहुंचे | यम और काल ने भी उसकी तपस्या की बड़ी प्रशंसा की | उसी समय तीर्थ निमित्त निकले हुए राजा इक्षवांकु भी वहा आ पहुंचे | राजा ने उस तपस्वी ब्राह्मण को बहुत सा धन देना चाहा;परन्तु ब्राह्मण ने कहा की ‘मैंने तो प्रवात्र-धर्म को त्याग कर निवृति-धर्म अंगीकार किया है, अत मुझे धन की कोई आवश्यकता नहीं है | तुम्ही कुछ चाहो तो मुझसे मांग सकते हो | मैं अपने तपस्या के द्वारा तुम्हारा कौन सा कार्य सिद्ध करूँ ?’ राजा ने उस तपस्वी मुनि से उसके जप का फल मांग लिया | तपस्वी ब्राह्मण अपने जप का पूरा का पूरा फल राजा को देने के लिए तैयार हो गया, किन्तु राजा उसे स्वीकार करने में हिचकिचाने लगे | बड़ी देर तक दोनों में वाद-विवाद चलता रहा | ब्राह्मण सत्य की दुहाई देकर राजा को मांगी हुई वस्तु स्वीकार करने के लिए आग्रह करता था और राजा क्षत्रियतत्व की दुहाई देकर उससे लेने में धतं की हानि बतलाते थे | अंत में दोनों में यह समझोता हुआ की ब्राह्मण के जप के फल को राजा ग्रहण कर ले और बदले में राजा के पुन्य फल को ब्राह्मण स्वीकार कर ले | उनके इस निश्चय को जान कर विष्णु आदि देवता वहा उपस्थित हुए और दोनों के कार्य की सराहना करने लगे, आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी |अंत में ब्राह्मण और राजा दोनों योग के द्वारा समाधी में स्थित हो गये | उस समय ब्राह्मण के ब्रह्मरंध्र में से एक बड़ा भारी तेज का पुन्ज निकला तथा सबके देखते-देखते स्वर्ग की और चला गया और वहा से ब्रह्म लोक में प्रवेश कर गया | ब्रह्मा ने उस तेज का स्वागत किया और कहा की आहा !जो फल योगिओ को मिलता है, वही जप करने वालो को भी मिलता है | उसके बाद ब्रह्मा ने उस तेज को नित्य आत्मा और ब्रह्म की एकता का उपदेश दिया, तब उस तेज ने ब्रह्मा के मुख में प्रवेश किया और राजा ने भी ब्राह्मण के भाँती ब्रह्मा के शरीर में प्रवेश किया | इस प्रकार शास्त्रों में गायत्री जप का महान फल बतलाया गया है | अत: कल्याण कामी को चाहिए की वे इस स्वल्प आयास से साध्य होने वाले सांध्य और गायत्री रूप साधन के द्वारा शीघ्र-से-शीघ्र मुक्ति लाभ करे |

श्री नारायणो हरिः
श्री जयदयाल गोयन्दका, तत्व चिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस गोरखपुर
साभार स्वामी अमृतानंद जी महाराज